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Friday 13 September 2013

खेजड़ली के 363 स्त्री-पुरूषों के बलिदान की पूरी गाथा :-

‘साको-363’ (खेजड़ली बलिदान दिवस) के अवसर पर 363 वीर-शहीदों को शत्-शत् नमन 

आज सारी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की चिंता में पर्यावरण चेतना के लिये सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है। हमारे धर्मग्रंथ, हमारी सामाजिक कथायें और हमारी जातीय परम्परायें हमें प्रकृति से जोड़ती है। प्रकृति संरक्षण हमारी जीवन शैली में सर्वोच्च् प्राथमिकता का विषय रहा है। प्रकृति संरक्षण के लिये प्राणोत्सर्ग कर देने की घटनाओं ने समूचे विश्व में भारत के प्रकृति प्रेम का परचम फहराया है। अमृता देवी और पर्यावरण रक्षक बिश्नोई समाज की प्रकृति प्रेम की एक घटना हमारे राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है। सन् 1730 में राजस्थान के जोधपुर राज्य में छोटे से गांव खेजड़ली में घटित इस घटना का विश्व इतिहास में कोई सानी नहीं है।
जोधपुर बसाने वाले राव जोधा जी गुरु जम्भेश्वर जी के ही शिष्य थे। जोधा जी के प्रार्थना करने पर गुरु जम्भेश्वर जी ने ही उन्हें बैरीसाल का नगाड़ा दिया था। गुरु जाम्भोजी की कृपा से ही जोधपुर नगर आबाद हुआ था। उन्ही जोड़ा जी की परम्परा में विक्रम सम्वत 1700 में अजित सिंह जी जोधपुर के राज बने। अजित सिंह जी पूर्णतय धर्मात्मा/धार्मिक राजा थे। ऐसे ही अजित सिंह का पुत्र अभयसिंह हुआ जो अपने पिता के स्वर्गवासी होने के पश्चात राज-सिंहासन पर बैठा। अपने राज्य की सीमा की सुरक्षा के साथ ही राज्य विस्तार की भावना से कई इलाकों पर चडाई कर दी व इस प्रकार अपना अधिकतर समय युद्ध में ही व्यतीत करते थे। सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह को जब युद्ध से थोड़ा अवकाश मिला तो उन्होंने महल बनवाने का निश्चय किया। राजा अभय सिंह के राज में राज्य का सम्पूर्ण कार्य सूत्र भंडारी गिरधर के ही हाथ में था, वह जैसा चाहता था वैसा ही प्रजा से करवा भी लेता था। राज्य पूर्णतय गिरधर के हाथ में चढ़ चूका था, इसीलिए गिरधर की ही मनमानी चलती थी। गिरधर स्वंय ही राजा के पास जाकर कहने लगा कि- हे अन्नदाता ! इस समय राज कोष कि हालत बहुत खराब चल रही है कर्मचारियों की नोकरी के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं तथा आपने जो किला बनवाना शुरू किया हुआ है उसके लिए चूने का भट्टा जलाने के लिए इंधन-सामग्री चाहिए। यदि आप आज्ञा दे तो मैं इसकी व्यवस्था कर दूं। मुझे पता चला है की यहाँ पास ही में बिश्नोईयों के गाँव में खेजड़ी के बहुत से वृक्ष है उन्हें कटवाकर लाता हूँ और उस इंधन से चुन जला लिया जाएगा। और अपनी समस्या भी हल हो जायेगी। इस पर रजा अभय सिंह ने उसे समझाते हुए कहा कि बिश्नोई लोग जाम्भोजी के शिष्य हैं, वे तुम्हे हरे वृक्ष नहीं काटने देंगे। तुम्हे खाली हाथ ही लोटना पड़ेगा। तो इस पर गिरधर ने कहा कि कोई बात नहीं अगर वो हमें पेड़ नहीं काटने देंगे तो हम उनके बदले उनसे कुछ रूपये की मांग रख देंगे, और उन रुपयों से हम किसी अन्य जगह से पेड़ों की व्यवस्था कर लेंगे। हमारे तो दोनों ही हाथों में लडडू हैं। इस प्रकार गिरधर रजा अभय सिंह को पूर्ण आश्वासन देकर कुछ सिपाहियों के साथ जोधपुर से चल कर 25 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में खेजड़ली गाँव पहुंचा और वृक्ष कटवाना शुरू कर दिया। वृक्षों पर कुल्हाड़ी की चोट से पड़ने वाली आवाज़ को वहाँ के लोगो ने सुना तो देखते ही देखते वहाँ पर कई आदमी इकट्ठा हो गए, और उन वृक्षों को काटने वाले आततायी लोगो से कुल्हाड़ी छीन ली और उनको वहां से वापिस भगा दिया। निहत्थे कर्मचारीयों ने जब यह वृत्तांत गिरधर को सुनाया तो गिरधर क्रोधित होते हुए उन बिश्नोई समुदाय के लोगो के पास पहुंचा और कहने लगा की आप लोग हॉट कोण है हमारे कर्मचारीयों को रोकने वाले? हम राजा अभय सिंह के आदेशानुसार ही यहाँ आयें हैं। हमारा अपमान राजा का अपमान है। आप लोग हमें इन पेड़ो को काटने से नहीं रोक सकते। तो इस पर बिश्नोईयों की तरफ से अणदे ने आगे बढकर कहा की हमें पता नहीं था की आप कौन हैं? पर आप जो भी हैं सायद आपको ज्ञात नहीं है की आप बिश्नोई के इलाके में प्रवेश कर गए हैं और यदि आप जोधुर से इन पेड़ो को काटने के उद्देश्य से ही आयें हैं तो आप वापिस चले जाएँ इसी में आपका भला है। तो गिरधर ने कहा कि तू गवांर होता कौन है मुझे रोकने वाला, और ऐसा कहते हुए उसने अपने कर्मचारियों को पेड़ काटने का आदेश दे दिया, पर कर्मचारी निहत्थे होने के कर्ण पेड़ काटने का साहस नहीं कर सके, और इस प्रकार से उन कर्मचारियों ने वृक्ष काटने से साफ़ मना करते हुए जोधपुर वापसी कि तैयारी करने लगे। तो इस पर गिरधर ने कहा कि चलो हम पेड़ नहीं काटेंगे पर आपको इसके बदले में रूपये देने होंगे तो बिश्नोईयों ने उसमे भी साफ़ मना कर दिया कि आप हमारी ही इस कमाई से कहीं और जगह से पेड़ कटवाओगे, और ये पाप हम नहीं कर सकते। आप चाहें तो हमारे सिर काट सकते हो पर हम पेड़ो को नहीं काटने देंगे। इस पर गिरधर चुप-चाप वहाँ से जोधपुर के लिए निकल पड़ा। जाते समय बिश्नोइयोन से उसकी दशा से अनुमान लगा लिया था कि अब जरुर कोई बड़ी विपदा आने वाली है क्योंकि वह क्रोध से भरा हुआ था और उसके होठ फड़क रहे थे । इसीलिए हमें चेन से नहीं बैठना चाहिए । दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता अवश्य ही दिखाएगा। इसीलिए कि बिश्नोईयों को ये आभाष हो गया था कि अब ये दुष्ट सेना के साथ आ सकता है इसीलिए बिश्नोईयों ने अपने पास के 84 गाँवों को चिट्ठी लिखी जिसमे सारा वृतांत बताने के साथ ही ये भी लिखा कि अब समय आ गया है हमें अपने प्राणों को दांव पर लगाने का, अब समय आ गया है हमें हमारे गुरु के सच्चे अनुयायी कहलाने का इसीलिए जो जो अपना धड कटवाने के लिए तैयार हैं वो जल्दी से जल्दी खेजड़ली पहुंचे। इस पत्र को लिखकर फिर ये पत्र पत्र-वाहकों को देकर भेज और अतिशीघ्र सूचित किया। पत्र मिलते ही 84 गाँवों के लोग आने लगे। कुछ ने गुड़े तो कुछ ने खेजड़ली में आसन लगाया। अब सब गिरधर कि प्रतीक्षा करने लगे। उधर गिरधर खिन मन से जोधपुर पहुंचा और खेजड़ली घटना का बढ़ा-चढ़ा कर सुनाया । राजा भी कुछ क्रोधित हुआ पर जल्द ही शांत भी हो गया। पर गिरधर फिर से कहने लगा कि ये बिश्नोई लोग धरम के नाम पर दिनोदिन उच्छखल होते जा रहे हैं जब तक इनको दण्डित नहीं किया जाएगा तब तक ये इसी प्रकार करते रहेंगे। इसीलिए मेरा तो यही विचार है कि मुझे बहुत बड़ी सेना के साथ वहाँ भेजा जाये, मैं वहाँ के सम्पूर्ण वृक्ष कटवा लाता हूँ ये लोग इन्ही पर ही तो गर्व कर रहे हैं फिर "न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी" तो इस पर अभय सिंह ने कहा कि ये जाम्भोजी के शिष्य हैं ये मर जायेंगे मगर पीछे नहीं हटेंगे, और आज तक हमारे दादा जी से लेकर किसी ने भी निर्दोष पर अत्याचार नहीं किया है, वे हमेशा ही वृक्षों कि रक्षा करते आये हैं, अब अगर मैं ऐसा करूंगा तो मेरा तो कुल ही कलंकित हो जायेगा ना। तुम्हारी बुद्धि ही ना जाने ऐसी क्यों हो गयी है कि वो तुम्हे धरम-विरुद्ध मार्ग पर ही धकेल रही है। इतना बड़ा फैसला लेने से पहले मैं अपनी नगरी के विद्वानों से सलाह लूँगा, आगे कि कारवाही उसकी के अनुसार होगी । इस प्रकार जब सभी विद्वानों कि सलाह ली गयी तो सभी ने ही कहा कि धर्म कि मर्यादा जो आपके यहाँ आदि-काल से चली आ रही है उसे नहीं तोडना चाहिए, और फर इन बिश्नोईयों का इसमें निजी स्वार्थ ही क्या है? उनका कार्य तो सर्वजन हिताय है और जो कार्य सर्वसाधारण कि भलाई के लिए हो उसे ज्ञानी लोग धर्म कहते हैं। इसिलए उन्हें मरने कि बात तो अपने मन से ही निकाल दीजिये हमारा तो यही मत है अब आपको जैसा उचित कगे वैसा ही करो। तो गिरधर ने राजा के पास आकर कहा कि ये सब तो आपके विरोधी हैं, अगर ये आपके सहयोगी होते तो ये राज्य की उन्नति की ही बात कहते । इधर देखिये आपका किला अधुरा पड़ा है, राजा अगर प्रजा पर शासन नहीं चला सकता तो वह कहाँ का राजा है? इस प्रकार से प्रजा मनमानी करने लग जायेगी तो तुम्हारा शासन डोल जाएगा। इस प्रकार से राजा व गिरधर के भीच में बहुत वार्ता हुयी पर अंत में राजा अभयसिंह को गिरधर ने अपने वाकजाल में फंसा ही लिया और एक बड़ी सेना के साथ खेजड़ली जाने की आज्ञा ले ली और आज्ञा मिलते ही देरी न करते हुए जल्दी ही गिरधर बड़ी से सेना और पेड़ काटने वाले मजदूरों के साथ खेजड़ली पहुँच गया। और वहीँ जाकर सेना डेरा लगाया और जगह-जगह अपने पर तम्बू लगा लिए। बिश्नोईयों की ज़मात उस रात सो ना सकी किन्तु गिरधर अपनी योजना को प्रातःकाल में ही सफल करने के विचार कर के रात्रि में मंत्रणा कर के सो गया। बिश्नोई लोग पूरी रात मंत्रणा ही करते रहे की प्रातःकाल में ये दुष्ट अपने सम्पूर्ण बल लगाएगा और निश्चित ही पेड़ काटने का प्रयास करेगा। इसीलिए रात्रि में सभी बिश्नोईयों ने मिलकर ये निर्णय लिया कि हम लोग प्रजा हैं, यह राजा का सेन्यबल है, इन लोगो के पास शस्त्र है हमारे पास नहीं है। इसीलिए अगर हम इनसे युद्ध करते हैं तो जीत नहीं सकते, हिंसा से तो हिंसा अधिक ही होगी। गुरु जाम्भोजी ने कहा है कि "जै कोई आवै हो हो कर ता आपजै हुईये पानी" यदि हम लोग इस सिद्धांत को अपनाए तभी सफल हो सकते हैं इसलिए प्रातःकाल में जब वह गिरधर पेड़ो को कटवाना शुरू करें तो तब जितने भी रुंख काटने वाले इकट्ठे रहेंगे और अलग-अलग पेड़ो को काटेंगे तो उतने ही लोग इन रुंखो से चिपक जायेंगे। शरीर कटवा लेंगे पर रुंखो को नहीं काटने देंगे। किसी प्रकार का सामना नहीं करना है, मन में सहनशीलता धारण करनी होगी, कहीं ऐसा न हो कि आप लोग अत्याचार देखकर उतेजित हो जाओ और युद्ध कर बैठो अगर ऐसा है तो कृप्या पीछे हट जायें। हमें यहाँ शांति से कार्य करना है। उधर सूर्योदय पर गिरधर भंडारी और उसकी सेना उठी और और उठते ही अच्छा मौका देखकर पेड़ काटने शुरू कर दिए। वृक्षों पर कुल्हाड़ी की चोट से पड़ने वाली आवाज़ को जब बिश्नोई समुदाय के लोगो ने सुना तो देखते ही देखते वहाँ पर कई-सौ आदमी इकट्ठा हो गए, सभी नारी-पुरुष अपना जीवन समपर्ण करने आये थे। और तुरंत भगवान् विष्णु को हृदय में धारण करके जिभ्या से भगवान् विष्णु का ही जप करते हुए, गुरु जम्भेश्वर जी को नमन करते हुए वहाँ से 363 बिश्नोईयों(69 महिलाये और 294 पुरूष) ने प्रस्थान किया और जहां वृक्ष काटे जा रहे थे, वहाँ जाकर बिना कुछ बोले-सुने निर्भय होकर रुंखो से चिपक गए। वहाँ पर राजकर्मचारी खेजड़ी पर घाव कर ही रहे थे कि उसी पर इन बिश्नोईयों ने अपने शरीर को रख दिया। उन रुंखो को जो पहले से चोट लग चुकी थी उसके लिए परमात्मा से माफ़ी मांगी आगे के लिए अपना शरीर पेड़ो पर रखते हुए उन पेड़ो को सुरक्षित रख दिया। जो चोट पेड़ो पर पड़ रही थी अब वही शरीरों पर पड़ रही थी। शरीर बिना कोई हुंकार किये ही ये सब झेल रहे थे। इस बलिदान यज्ञ में सर्वप्रथम आहुति देने का श्रेय 42 वर्षीय महिला "अमृता देवी" को मिलता है। इनके पीछे इनकी तीन पुत्रियां व पति रामू खोड़ भी थे। इनके बलिदान को देखकर इनकी माता जी कान्हा कालीरावणी ने भी पीछे रहना ठीक नहीं समझा व अपने प्राणों कि आहुति भी दे दी। पुरुषो में सर्वप्रथम अणदोजी वीरता वणियाल चचो जी उधोजी, काह्नोजी तथा किसान जी ने अपने प्राणों कि आहुति खेजड़ी वृक्षों कि रक्षार्थ में दी। देखते ही देखते 363 शरीरों के हाथ-पाँव, सिर-धड़ आदि के टुकड़े-टुकड़े हो कर धरती पर गिरने लगे। धरती खून से लाल हो गयी। यह घटना भादवा सुदी दशमी,मंगलवार, विक्रम संवत 1787 कि है। गिरधर ने जब तक रोकने का आदेश नहीं दिया तब तक वे कर्मचारी शरीर के टुकड़े करते ही रहे। 363 शरीरों के ना जाने कितने ही टुकड़े उन दया-हीन जानो ने किये होंगे, उसका कोई अन्तपार नही है। जब वे कर्मचारी एक एक शरीर क टुकड़े को काट चुके थे तो जब पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि अभी भी कई-सौ बिश्नोई समुदाय के लोग इन रुंखो के लिए जान देने के लिए तैयार हैं। तब कर्मचारी लोगों का साहस जवाब दे गया वो सब कुल्हाड़ी फेंक कर जोधपुर के लिए भाग खड़े हुए। सैनिको ने भी उन्ही का ही अनुसरण किया। आते समय जो गिरधर सब से आगे आया था जाते समय वही हारे हुए मन से अपनी हार पर उदास होकर वापिस लोट गे और जोधपुर नरेश को पूरी घटना से अवगत करवाया। अभयसिंह ने इस पर आश्चर्य परकत करते हुए गिरधर को दण्डित किया और कहा कि रे दुष्ट ! यह पाप तुमने किया है किन्तु मेरे साशन अधिकार में हुआ है इसीलिए इसके फल का भागी तो मैं ही हूँ। एक तो वो लोग हैं जो परीक्षों कि रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे रहे हैं और एक तू हैं जो उन्ही के प्राण लेकर आया है। अरे निर्दयी ! कुछ तो दया करनी सीखी होती तूने। इस प्रकार बाद में अभयसिंह खुद भी पश्चाताप कि आग में जलने लगा। फिर एक दिन अभयसिंह खुद बिश्नोईयों कि ज़मात में जाकर अपने सिर कि पगड़ी बिश्नोईयों के पैरों में रख दी- और प्रार्थना करते हुए कहा कि ये मेरा ये सिर आपके चरणों में हैं आप चाहे तो इसे काट दे चाहे तो छोड़ दे, मैं आपका अपराधी हूँ। जब तक जिन्दा हूँ तब तक पश्चाताप की आग में जलता रहूँगा। तो बिश्नोईयों ने कहा कि हम तो वृक्षों के लिए प्राण न्योछावर करने वाले हैं हमसे आपका सिर नहीं काटा जाएगा। आप हम पर बस यहीं उपकार करें कि जिन वृक्षों को बचाने के लिए बलिदान दिया है वो वृक्ष कभी ना काटे जाएँ। और अगर कोई काटता है तो उसमे दंड का प्रावधान हो। अभयसिंह ने उनकी बात स्वीकार करते हुए उन बिश्नोईयों को एक पट्टा लिखकर दिया जिसमे भविष्य में ऐसी कोई घटना के ना होने का वचन था। इस वन को हरा-भरा बनवाऊंगा ऐसा कहते हुए अभयसिंह जोधपुर पहुंचा और अपने राज्य में वृक्षों कि रक्षा तथा जीव रक्षा का नियम बना दिया तथा उसका पालन भी सख्ती से होने लगा।
यह खेजडली बलिदान कि घटना 21 सितम्बर 1730, भादवा सुदी दशमी,मंगलवार, विक्रम संवत 1787 का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा। समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने की ऐसी कोई दूसरी घटना का विवरण नहीं मिलता है। हमारे देश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा सभी राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। हमारे यहां प्रतिवर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के तत्वावधान में एक माह की अवधि का राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमारे सरकारी लोक चेतना प्रयासों को इस महान घटना से कहीं भी नहीं जोड़ा गया है। हमारे यहां राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के लिये इस महान दिन से उपयुक्त कोई दूसरा दिन कैसे हो सकता है? आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि 21 सितम्बर के दिन को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित किया जाये यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी और इससे प्रकृति सरंक्षण की जातीय चेतना का विस्तार हमारी राष्ट्रीय चेतना तक होगा, इससे हमारा पर्यावरण समृद्ध हो सकेगा।

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